

अथ योगानुशासनम्।।१।। YOGSUTRAA सूत्र में "अथ" पद अधिकार के लिए है।( योग) यह शब्द युज् धातु से 'समाधि' अर्थ में है। सूत्र का आश्य यह है कि संपूर्ण योग शास्त्र का विषय योग का उपदेश करना है। क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध ये चित्त की पाँच अवस्थाएं हैं। चित्त की क्षिप्त तथा मूढ अवस्था में योग नहीं होता क्योंकि क्षिप्त दशा में रजोगुण प्रधान होने से चित्त अति चंचल और मुढ दशा में तमोगुण की प्रधानता होने से चित्त अति आलस्यमय रहता है। विक्षिप्त दशा में सत्व गुण की प्रधानता होते हुए भी रजोगुण से अनुविद्ध होने से चित्त अपने विषय से हट जाता है। चित्त की एकाग्र दशा में लक्ष्य का पूर्ण रूप से साक्षात्कार होता है। एकाग्र दशा में लक्ष्य के सत्य स्वरूप का बोध होता है। एकाग्र अवस्था अविद्या आदि पंच क्लेश ( अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) को क्षीण करती है तथा कर्म के बंधन के पाश को शिथिल कर देती है और चित की अंतिम दशा की ओर प्रवेश कराती है वह एकाग्र समाधि संप्रज्ञात योग नाम से जानी जाती है। वह संप्रज्ञात समाधि वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनंदानुगत और अस्मितानुगत भेद से चार प्रकार की होती है। असंप्रज्ञात समाधि चित्त की सभी वृत्तियों का निरोद्ध होने पर सिद्ध होती है।